काँची
माड़साब! ये बालविवाह क्या होता हैं? धीमी सी आवाज़ में काँची ने अपना सिर उठाते हुए पूछा। काँची का सवाल माड़साब के कानों में पड़ते ही उनके हाथ से चोक नीचे गिर गई। ऐसा लगने लगा, जैसे काँची ने सवाल नहीं कोई चीत्कार की हो। एकाएक उन्होनें मुड़कर काँची को देखा। माड़साब के चेहरे पर कुछ अजीब से भाव ठहर गये थेl जो उस दिन से पहले कभी किसी ने कक्षा में नहीं देखे थे। उन्होनें देखा कि काँची की गर्दन झुकी हुई हैं और नज़रें भौहों से टकराती हुई। माड़साहब ने अपने कानों के सुने को यकी़न में बदलने के लिये लड़खड़ाती हुई आवाज़ में काँची से पूछा, तुम अपना सवाल एक बार फ़िर से दोहराओ…? काँची ने बुदबुदाते हुए कहा माड़साब य् य् ये बा ऽ ऽ ऽ ल विवा ऽ ऽ ऽ ह क्या होता है…? माड़साहब ने इस हकलाहट भरी बुदबुदाहट को सुन, इस बात की पुष्टि कर ली कि काँची ने पहली बार में जो पूछा, वही इस बार भी बोला है। माड़साहब ने कहा काँची, तुम दस वर्ष की हो, चौथी कक्षा में पढ़ती हो, तुम्हारे पाठ्यक्रम में बालविवाह संबधित कोई पाठ नहीं हैं। बाल विवाह के बारे में तुमने कहाँ सुना…? काँची कुछ बोलने के लिए मुँह खोल ही रही थी कि उसके पास बैठी उसकी सहेली वरजू बोल पड़ी, माड़साब…
इतने में काँची की माँ बाया, काँची को विद्यालय से लेने के लिए आ गई। काँची की माँ ने माड़साब को नमस्कार किया। बदले में माड़साब ने भी नमस्कार कहा। काँची की माँ ने माड़साब से निवेदन किया कि वरजू की माँ ने वरजू को भी साथ में लाने को कहा हैं। माड़साब बोले, जी ले जाईये। वहाँ से काँची अपनी माँ का हाथ थामे और काँची का हाथ वरजू थामे निकल पड़ी। रास्ते में वरजू को घर छोड़ते हुए दोनों अपने घर पहुँची। ‘अरे ओ काँची की माँ, वो सारी तैयारियाँ हो गई ना। समधि जी बस पहुँचते ही होंगे। ‘ऐसा काँची के बापू ने कहाl ‘हाँ जी, काँची के बापू, सारी तैयारियाँ लगभग पूरी हैं बस वो मंडप के लिए थाल सजाना बाकी है।‘ काँची की माँ ने जवाब में कहाl काँची को अब तक कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था कि ये सब हो क्या रहा है। मग़र इतना ज़रूर था कि उसे आन्नदानूभूति हो रही थी, क्यों कि उस दिन घर में सभी ख़ुश नज़र आ रहे थे। साथ ही ख़ुशी की एक वजह ये भी थी कि उसे माँ ने बोला कि तुम्हारे लिये नये कपड़े लाये हैं, काँची उन्हें पहन आओ। और काँची तैयार होने के लिए झोंपड़ी के अन्दर चली जाती हैं। काँची खूंटी पर अपना बैग टांग करके झोंपडी के एक छेद में से बाहर हो रहे कार्यक्रमों को देख मंद मंद मुस्कुरा रही थी, साथ ही साथ तैयार भी हो रही थी। बाहर से माँ की आवाज़ आई ‘अरे काँची जल्दी कर मेहमान आ गये हैं और तू अभी तक तैयार नहीं हुई। हाथ चलाकर जरा वो कुमकुम की पुड़िया देना री।‘ ‘अभी देती हूँ माँ।‘ ऐसा कहकर काँची ने पुड़िया पकड़ाई और फ़िर से तैयार होने लगी। बिना किसी शोर शराबे के एक जीप में बरात पहुँचती है। गिनती के पाँच से सात लोग ही थे बरात में। और इसी के दुगुने ही काँची के घर भी। काँची ने बाहर निकलने के लिए झोंपड़ी का दरवाज़ा खोला ही था कि उसके दिमाग में आया, क्यों ना एक बार शीशे में ख़ुद को देख लूँ। उसने हाथ वाला शीशा दीवार पर लगी कील से उतारा और ख़ुद को देखने लगी फ़िर मन ही मन ख़ुद से बातें करने लगीl ’ओए होए काँची तू तो बड़ी फूठरी (ख़ूबसूरत) लग रही है।’ हक़ीकत में बाहर क्या होने वाला हैं इन सबसे अन्जान, वो अपनी ही दुनिया में अपने आप से बातें कर रही थी, कि इक दफ़े फिर आवाज़ आई ’अरे काँची जल्दी कर शुभ मुर्हुत निकला जा रहा हैं।’ ऐसा काँची की माँ ने कहाl काँची शीशे को वापिस कील पर टांग कर आनन फानन में दरवाजा खोल बाहर निकली।
बाहर आते ही उसकी माँ ने उसके कंधे पर पड़ी चुन्नी से उसका घूँघट कर दिया। अब घूँघट में काँची को धुँधला सा दिखाई पड़ रहा था। इसीलिए वो घूँघट को ऊपर किये बग़ैर दोनों हाथों से चुन्नी को पकड़कर के एक आँख से सब कुछ देखने की कोशिश कर रही थी कि माँ डाँटते हुए कहती है कि काँची घूँघट पूरा नीचे रखो। काँची के घर वाले और गाड़ी से आये हुए मेहमान सभी इकट्ठा होकर के ग्वाड़ी (झोंपड़ी के बाहर मिट्टी और गोबर का बना चौक) में बैठे थे। उन सभी के बीच में काँची की ही तरह तैयार होकर के आया हुआ एक लड़का (बागड़ राम) बैठा था। वो सबसे अलग नज़र आ रहा था इसलिए काँची और उसके घर आये हुए कुछ रिश्तेदारों की नज़र बार बार उसी पर जाना भी लाज़मी था। और वो लड़का भी सभी को देख देख इतरा रहा था। इतने में पंडित जी ने आवाज़ लगाई वर वधू को मंडप में लाया जाये। और काँची की माँ, काँची को और उस लड़के को मंडप में एक दूसरे के पास बैठा देती है। दोनों को कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था कि ये सब क्या हो रहा है। इतना ज़रूर था कि दो नादां मन में कौतूहल का एक समंदर हिलोरें ले रहा था। पंडित जी कुछ मंत्र पढ़ने लगे। और महिलाएँ मंगल गीत गा रही थीं। पंडित जी दोनों के हाथों को एक लाल रंग के कपड़े से बाँध हथलेवा कर रहे थे। हथलेवा के बाद काँची के कंधे पर पड़ी चुन्नी को उस लड़के के कंधे पर पड़ी शाल से गठजोड़ किया गया। इसके बाद पंडित जी ने दोनों को खड़ा कर दियाl इतने में काँची की माँ दौड़ी-दौड़ी पास चली आई। काँची के पहने कपड़ों को चँवरी (हवन कुँड) से बचाने के लिए। अब दोनों को फ़ेरे लगवाये जा रहे थे इतने में काँची ने उसकी माँ से फुसफुसाते हुए पूछा ’ये क्या हो रहा है माँ…?’ ‘माँ ने कहा चुप रह काँची पूजा के बीच कुछ नहीं बोलते। वो एक दम से चुप हो गई जैसे उसे कोई साँप सूंघ गया हो। फेरे पूरे होने के बाद वो लड़का वापिस वहीं बैठ जाता है जहाँ से वो उठकर के मंडप में आया था और काँची को उसकी माँ हाथ पकड़कर झोंपड़ी के अंदर ले जाती हैं। अंदर जाने के बाद छलकी आँखों से वो काँची का माथा चूमती हैं। काँची पूछती हैं ’माँ तुम रो क्यों रही हो…?’ माँ बोलती हैं ख़ुशी के आँसू है पगली। काँची का माथा चूम लेने के बाद, काँची एक टक माँ को देखती रहती हैं। इतने में बाहर से आवाज़ आती है ’अरे ओ काँची की माँ जल्दी बाहर आओ।’ ’अभी आई काँची के बापू’ फिर काँची की माँ काँची से कहती है तुम यहीं बैठना जब तक कि मेहमान चले नहीं जाते। काँची की माँ के बाहर निकलते ही काँची झोपड़ी के उसी छेद से बाहर झाँकने लगती है। बाहर सभी रिश्तेदार और मेहमान समूह में बाजोट (लकड़ी का पट्टा) के पास बैठे होते हैं। काँची की माँ तीन बड़ी पीतल की थालियाँ लगाती है। थाली में बाजरे की रोटी के ऊपर घी गुड़, एक-एक (बटकी) कटोरी में केर-साँगरी का साग और दूसरी बटकी में दही परोसती हैं। रिश्तेदार और मेहमान खाना खाते हुए खाने की तारीफ़ करते हैं। खाना खाने के बाद सभी हाथ धोकर के खाट (लकड़ी का पलंग) पर बैठते हैं। इतने में काँची के श्वसुर जी कहते हैं अब इजाज़त दीजिये समधि साहब, ताकि समय पर घर पहुँचा जा सके। काँची के पिता के हाथ में एक पोटली होती है जिसे वो भामरा राम को थमा देते है। पोटली का वजन देख लग रहा था कि कुछ सोने चाँदी के भारी आभूषण और कुछ नक़दी थी पोटली में। जिसे भामराराम जी हँसते-हँसते स्वीकार करते हैं। काँची के बापू अबूरा राम और उसके श्वसुर जी भामरा राम गले मिलकर एक दूसरे को बधाई देते हैं। काँची की माँ भी काँची की सासु माँ को गले मिलकर के बधाई देती है। काँची की माँ से काँची की सासु माँ कहती है, ‘ख़्याल रखियेगा हमारी बहू का।‘ बदले में काँची की माँ उन्हें अपना सिर हिला कर आश्वस्त करती हैं। सारे मेहमान एक एक कर जीप में बैठते हैं। जिससे काँची का ब्याह (शादी) हुआ है वो लड़का जीप में आगे वाली सीट पर बैठता है और जीप रवाना हो जाती है। जीप के कुछ दूर चले जाने के बाद काँची के बापू और माँ आकर ग्वाड़ी में बैठ जाते हैं। फिर काँची की माँ काँची को आवाज़ लगाकर बुलाती है ’ओ री काँची, बाहर आजा री’ ’आई माँ’ ऐसा काँची जवाब में कहती है। काँची बाहर आके माँ से पूछती है ’माँ! ये आज क्या कार्यक्रम था…?’ जवाब में काँची की माँ कहती है ’वक़्त आने पर सब समझ जाओगी। ’माँ वो वक़्त कब आयेगा…?’ काँची की माँ कहती है ‘बहुत जल्द।’
अगले दिन वरजू स्कूल जाती है तो माड़साब पूछते हैं ’वरजू आज तू अकेली कैसे आई स्कूल, काँची कहाँ हैं…? वरजू कहती है माड़साब काँची का तो ब्याह हो गया कल। वरजू के शब्द पूरे हुए ही थे कि माड़साब के माथे से पसीने के रेले छूटने लगे। आँखों में बिना रोये आने वाले आँसू बहने लगे। पूरा शरीर कंपकपाने लगा और होंठ थर्राने। आत्मग्लानि से भर चुके थे माड़साब। एक ऐसे गुनाह के बोझ तले ख़ुद को दबा महसूस कर रहे थे जो उन्होनें नहीं किया। और बिना किसी को कुछ कहे स्कूल से चुप चाप चल दिये। बड़ी मुश्किलों से ख़ुद को सम्भालते हुए घर पंहुचकर के पलंग पर बैठकर बहुत रोये। अगले दिन माड़साब को सदमे की वजह से अस्पताल में भर्ती करवाना पड़ा।
माड़साब की ख़बर सुनकर काँची को भी बहुत दुःख हुआ। मग़र काँची उस वक़्त माड़साब की उस हालत से वाकिफ़ नहीं थी। धीरे धीरे वक़्त हाथ से फिसलती रेत की भाँति गुज़रता गया। काँची अब बारह साल की हो चुकी थी। एक दिन ग्वाड़ी में बैठे-बैठे ही काँची की दादी बेसुध होकर गिर पड़ी। काँची के बापू दौड़े-दौड़े उनकी माँ के पास आये। देखा तो पता चला कि काँची की दादी अब इस दुनिया में नहीं रही। पूरे घर में मातम पसर गया। शमशान में पार्थिव शरीर को जलाये जाने के बाद घर में बैठक रखी गई। बैठक में पंचो द्वारा फ़ैसला सुनाया गया कि अबूरा राम को उसकी माँ के देहान्त पर मौसर करना होगा। मौसर का नाम सुनते ही अबूरा राम के पैरों तले ज़मीन सरक गई। क्यों कि जो भी धन जोड़ा था वो सभी काँची के ब्याह में दो साल पहले लगा दिया। अब अबूराराम के पास में मौसर करने के लिए कुछ नहीं बचा था। पंच अपनी सफेद मूँछों को ताव देकर चले गये। थोड़ी देर में काँची की माँ, काँची के बापू के पास आई। उन्हें हताश देख पूछने लगी ’क्या हुआ काँची के बापू आप इस तरह मुँह लटकाये क्यों बैठे हैं…?’ अबूरा राम कुछ नहीं बोले। काँची की माँ ने फिर एक बार पूछा ’जी क्या हुआ, कुछ तो कहिये…?’ ’जीते जी मार डाला उन पंचो नेl’ अबूराराम के मुँह से बस इतनी सी ही बात निकली। उस रात को काँची के बापू ने खाना भी नहीं खाया और सोये भी नहीं।
अगले दिन काँची के बापू पंचों के पास गये। बोले मेरे पास इतना पैसा नहीं हैं कि मैं मौसर कर पाऊँ। काँची के पिता की बात सुनकर पंचों के चेहरे पर क्रोध के भाव प्रकट होने लगे। पंच बोले ’देख भाई अबूरा राम मौसर तो तुझे करना ही पड़ेगाl ये हम सभी पंचों का सामूहिक फैसला हैं और समाजिक नियमों की मर्यादा का पालन करवाना हमारा दायित्वl हाँ तुम्हारे लिये हम इतना ज़रूर कर सकते हैं कि हम सभी तुझे मौसर करने के लिए पैसे दे सकते हैं।’ इतना सुनते ही अबूराराम के चेहरे पर ख़ुशी लौट आई। पंच बोले ’आगे सुनो अबूराराम! तुझे मूल के साथ-साथ सूद भी वक़्त पर चुकाना होगा। अगर तेरा सूद वक़्त पर नहीं आता तो तेरी ज़मीन पर हमारा कब्ज़ा हो जायेगा।’ ये सुनकर अबूराराम की आँखों के सामने अन्धेरा छा जाता है। फिर अबूरा राम कहता है ’मेरे पास घर चलाने के लिए रेगिस्तान के इस इलाके में थोड़ी सी ही ज़मीन हैं। जो भी इंद्र देव की दया दृष्टि की मोहताज़ है।’ पंच उसकी बात को नकारते हुए, मौसर किये जाने की बात पर पुख्ता ठप्पा लगा देते हैं। अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा को बचाये रखने की ख़ातिर काँची के बापू आखिर में हाँ कहते हुए वहाँ से उठकर चल देते हैं।
अगले दिन आस पास के समस्त जाति समाज वाले गाँव के परिवार के सभी सदस्यों के नाम चिट्ठियाँ फाड़ी (निमंत्रण) जाती हैं। उन्हें मृत्युभोज पर आमंत्रित किया जाता हैं। काँची की दादी को मरे हुए बारह दिन हो चुके थे और कल समाज के सभी परिवारों का जमावड़ा काँची के घर होने वाला था।
तेहरवें दिन भारी मात्रा में लोग काँची के घर पंहुचने लगे। पाँच तरह की अलग अलग मिठाइयाँ देशी घी में बनायी गई थीं। खाना खिलाने की सारी व्यवस्थाऐं घर के बाहर की गई। काँची के बापू भीतर से तो दुखी थे मगर बाहर सभी से फर्ज़ी मुस्कुराहट के साथ मिल रहे थे।
खाना खाकर लोग वापिस अपने-अपने गाँव को लौट गये। मग़र काँची के बापू को एक ऐसे बोझ तले दबा छोड़ गये जिससे उनका दम ज़िंदगी भर घुटता रहेगा। कुछ समय गुज़रा मरूस्थल में भयंकर गर्मी पड़ने लगी। सरकार ने भी सूखा पड़ जाने की वजह से आपदा घोषित कर दिया। लेकिन इस आपदा ने काँची के बापू की कमर ही तोड़ दी। मूल की बात तो कोसों दूर रही, अब तो सूद पर भी सूद चढ़ने लगा था। काँची के बापू के पास घर चलाने के लिये उनका एकमात्र सहारा उनकी ज़मीन थी, वो थी उनके हाथ से जाती रही। काँची के बापू इतने कमज़ोर हो चले थे कि उनकी एक-एक पसलियों को गिना जा सकता था।
सरकारी पेंशन पर अब घर चलने लगाl लेकिन उन्होंने इन सभी समस्याओं के बावज़ूद भी काँची की पढ़ाई को सरकारी स्कूल में जारी रखा। अब काँची पंद्रह साल की हो चुकी थी। अब उसे वक़्त और परिस्थितियों ने समझदार बना दिया था। काँची के ससुराल से भी उसे भिजवाये जाने का दबाव बढ़ने लगा था। एक दिन काँची को उसकी माँ ने बताया कि उसकी शादी बचपन में ही कर दी गई थी और उसे बहुत जल्द ससुराल जाना होगा। माँ की ये बात सुनकर काँची पूरी तरह टूट गई। ना आँसू आ रहे थे ना ही पलकें झपक रही थी। ऐसा लग रहा था जैसे किसी समंदर की लहरें शांत हों, मग़र सतह पर भयावह भूकंप आया हो। काँची किसी को बिना कुछ बताये रेगिस्तान के टीले पर अकेली जा बैठी। और वहाँ बैठे हुए आसमान को ऐसे देखने लगी जैसे उसका गुनहगार उस आसमान में छिपा हो। वो मिट्टी में अपनी ज़िंदगी को देखने लगी, उसे अपने हाथ में पकड़कर के रोकने की कोशिश करने लगी, मग़र मिट्टी हाथ में नहीं रूक रही थी। जिस रूदन को उसने अब तक थाम रखा था। उसने सैलाब की शक़्ल इख़्तियार कर ली थी। पूरा रेगिस्तान सहमा हुआ ख़ामोशी से उसकी आह और पुकार को सुन रहा था साथ ही सोच रहा था कि कहीं आज मुझ रेगिस्तान का अस्तित्व ही ख़त्म ना कर दे ये आँसूओं का सैलाब। कुछ देर में काँची की माँ उसको ढूँढते हुए पहुँची। और बोली ’काँची मैंने तुझे कहाँ-कहाँ नहीं ढूँढा, तू है कि यहाँ रेत के टीले पर आके अकेली बैठी है। चल घर चल’ काँची ने कहा ’कौन से घर माँ…?’ ’बावली हो गई है क्या, कैसी बात कर रही है…?’ ऐसा काँची की माँ ने कहा। ‘एक पल में ही बेग़ाना कर दिया री तूने मांई’ काँची ने अपनी माँ से ऐसा कहा। काँची की माँ के पास अब कुछ भी कहने को बचा नहीं था। काँची और उसकी माँ टीले से नीचे उतरकर के घर को लौट आयी। उस दिन दोनों ने खाना नहीं खाया। काँची दायीं करवट और उसकी माँ बायीं करवट लेकर सोते हुए कुछ सोचने लगी। काँची का तकिया उसके बापू को सुबह भीगा हुआ मिला। तो काँची के बापू ने, काँची की माँ से पूछा ’क्या बात है काँची रात भर रो रही थी क्या…?’ ’नहीं तो काँची के बापू’ ऐसा काँची की माँ ने कहा। ’तो फिर काँची का तकिया पूरा भीगा हुआ कैसे था…?’ काँची के बापू ने काँची की माँ से पूछा। काँची की माँ बोली ’वो रात को नींद में उसके हाथ से पानी का लोटा तकिये के पास गिर गया होगा।’
दो दिन बाद काँची के बापू के पास उसके ससुराल वालों का फिर संदेशा आया। संदेशे में वही बात लिखी थी कि अब काँची का गौना (बालविवाह हो जाने के कुछ सालों बाद ससुराल भेजे जाने की प्रथा) कर दो। काँची की माँ और बापू आपस में बात करते हैं कि काँची को ससुराल कब भेजा जाये। काँची के माँ-बापू के बीच राय बनती है कि आने वाली आखातीज पर्व पर ही काँची का गौना कर दिया जाये।
कुछ दिन बीते, काँची के माँ-बापू काँची को सुसुराल भेजने की तैयारियाँ पूरी कर चुके थे। अब आखातीज आने में दो ही दिन बचे थे। आखिरकार वो दिन भी आ ही गया जब काँची की विदाई होनी थी। घर में सभी खुश थे सिवाय काँची और उसकी माँ को छोड़कर, काँची की माँ इसलिए दुखी थी कि अपने कलेजे के टुकड़े को अपने आप से दूर करने वाली थी। और काँची इसलिए दुखी थी कि उसके मन में पल रहे अपने पैरों पर खड़े होने के सपने की होली जलने वाली थी। काँची के ससुराल से काँची को लेने के लिए उसके सासु-श्वसुर, उसका बीदं बागड़राम (दूल्हा) और जेठ-जेठानी के साथ बाकी सारे लोग वही थे, जो ब्याह के वक़्त आये थे। उनके आते ही रस्म अदायगी के कार्यक्रम शुरू हुए। रियाण का कार्यक्रम रखा गया जिसमें दो पक्ष मिलकर के एक दूसरे की हथेली मे अफ़ीम के कुछ टुकड़े रखकर के मनवार (मनुहार) करते हुए खिलाते हैंl रियाण के कार्यक्रम के बाद काँची के ससुराल पक्ष को खाना खिलाया जाता है। काँची को लेने आये सभी लोग खाना खा लेने के बाद कुछ देर आराम करते है। लेकिन काँची के श्वसुर और काँची के बापू आपस में बातें करने लग जाते हैं। फिर काँची के श्वसुर भामरा राम काँची के बापू से कहते है कि बहू को तैयार करवा दो ताकि हम समय पर घर पहुँच पायें। तब ही काँची के बापू कहते हैं ’अरी ओ काँची की माँ, काँची को जल्दी तैयार करवा दो।’ ’अभी करवाती हूँ काँची के बापू’ ऐसा काँची की माँ ने कहा। खाना खाने के बाद काँची को तैयार करने के लिए उसकी कुछ सहेलियाँ इस बार काँची की माँ के आदेशानुसार झोंपड़ी के अंदर ले जाती हैं। काँची का मुँह लटका हुआ था और काजल भी आँखों से बह रहा था। इतने में उसकी एक सहेली वरजू उसे कहती है काँची आँसू पोंछ ले तेरा काजल बह रहा है। काँची, वरजू की कही बातों को अनसुना कर रही थी। जैसे तैसे काँची को तैयार करके बाहर लाया गया। बाहर आने के बाद जब विदाई हुई तो काँची अपने माँ-बापू के गले लगकर, फूट-फूट कर के रोई। उसके माँ बापू का भी बुरा हाल था। फिर एक बार काँची के बींद के साथ उसका गठजोड़ किया गया। काँची की कमर और गर्दन झुकी हुई थी। उसे जीप में बैठाया गया। इस बार काँची और उसका बींद, पीछे की सीट पर बैठे थे। दो घंटे के बाद काँची का ससुराल आ गया। काँची जीप से नीचे उतरी और घर की तरफ़ अपने बींद के पीछे पीछे चलने लगी। उसके लिए स्वागत की सभी तैयारियाँ की जा चुकी थीं। अब काँची के पगफ़ेरा की रस्म निभाई जाने लगी। जिसमें बींद-बींदणी को गृह प्रवेश करवाया जा रहा था। गृह प्रवेश के बाद काँची को एक झोंपड़ी में बैठा दिया जाता हैं। थोड़ी देर बाद गाँव की कुछ महिलाऐं बींदणी की मुँह दिखाई के लिए झोंपड़ी के भीतर आती हैंl एक महिला उसका घूँघट ऊपर करके देखती है और पास ही बैठी काँची की सास से कहती हैं ’बींदणी तो घणी ही फूठरी (ख़ूबसूरत) लाया हो।‘ ’इस पर काँची की सास बोलती है ’बावळी होगी काईं, थूथूकी थूक नज़र लगायेगी क्या मेरी बहू को। फिर सभी महिलाऐं बारी- बारी से काँची का चेहरा देखकर के उसे मुँह दिखाई देकर झोंपड़ी से बाहर आ जाती हैं। काँची की ननंद उसके पास आके कहती है ‘भाभी आप कुछ देर आराम कर लो, बहुत थक गई होंगींl’ और इतना कहके उसकी ननंद झोंपड़ी से बाहर चली जाती हैl उसके बाहर जाते ही काँची उसी जगह बैठे-बैठे सो जाती हैl काँची के ससुराल वाले बहुत ख़ुश हैंl घर मैं नई बहू जो आई हैंl काँची का बींद बागड़ राम अपने कुछ दोस्तों के साथ ग्वाड़ी में अल्हड़ अंदाज़ में हँसते हुए बातें कर रहा हैl थोड़ी देर में काँची का बींद और उसके सभी दोस्त उठकर कर के घर से बाहर चले जाते हैंl शाम ढल चुकी है काँची का बींद अब तक घर नहीं लौटा हैl दोपहर में जिस झोंपड़ी में काँची को बैठाया गया था, वो झोंपड़ी अब भीतर से सजी हैंl काँची उसी झोंपड़ी में चुपचाप, घुटनों पर ठोड़ी को रखकर के ज़मीन पर बैठी हैl कुछ देर में काँची उसी जगह पर लेट जाती हैl अचानक से देर रात झोंपड़ी के दरवाज़े पर दस्तक होती है और काँची की नींद खुल जाती हैl काँची पूछती है ‘कौन है दरवाज़े पर’ बाहर से आवाज़ आती है ‘मैं हूँ काँची, दरवाज़ा खोलो’ काँची फिर से दरवाज़े के पास आकर कहती है ‘मैं कौन…?’ दरवाज़े के बाहर से फिर से आवाज़ आती है ‘अरे काँची मैं बागड़ राम, थारा बींद’ काँची डरते हुए दरवाज़ा खोलकर पीछे हट जाती हैl बागड़ राम लड़खड़ाते हुए भीतर चला आता है और अन्दर से दरवाज़ा बंद कर लेता हैl काँची का मन ज़ोरों से धड़कने लगता हैl बागड़ राम काँची के पास आता है, काँची पीछे सरकने लगती हैंl बागड़ राम थोड़ा और पास आता हैl अब काँची के सरकने के लिए कोई जगह बाकी नहीं होती क्योंकि पीछे झोंपड़ी की दीवार होती हैl काँची के घूँघट को बागड़ राम एकदम से ऊपर उठा देता हैl काँची को उसके मुँह से बदबू आती हैl काँची कहती है ‘आपने शराब पी है…?’ बागड़ राम कहता है ‘मर्द दारू नहीं पीयेगा, तो कौन पीयेगा…?’ काँची को शराब की बू इतनी ज़्यादा आती है कि वो बार बार बागड़ राम से दूर खड़ी होने की कोशिश कर रही होती हैl मगर अब बागड़ राम काँची के साथ जोर जबरदस्ती करने लगता हैl काँची बहुत विरोध करती हैl इस विरोध में उसकी चुन्नी भी फट जाती है और हाथ की सारी चूड़ियाँ भी टूट जाती हैंl काँची के बार बार विरोध किये जाने के कारण बागड़ राम काँची के बाल खींचते हुए पिटाई कर देता हैl काँची अपने आप को बेबस पाती हैl और उसके विरोध की आवाज़ झोंपड़ी के भीतर ही दबकर के रह जाती हैl
अगले दिन काँची अपने आप को रूह तलक ज़ख़्मी पाती हैl जिस्म के घावों को तो अपने कपड़ों के नीचे छिपा लिया था उसनेl और सारा दिन झोंपड़ी में अपने आपको कैद भी कर लिया थाl बाहर सभी घर वालों को लग रहा था कि नई बींदणी (दुल्हन) है तो घर के माहौल में ढलने में वक़्त तो लगेगा हीl झोंपड़ी में भगवान की एक तस्वीर रखी थीl उसे देखकर के मन ही मन प्रार्थना करने लगी ‘हे भगवान, आज रात ना होl’ लेकिन रात और दिन किसी के रोके रुके है भलाl कुछ पहर के बाद रात आईl बागड़ राम फिर से शराब पीकर आयाl काँची बहुत ही भयभीत सी बैठी थीl उसे ऐसा लग रहा था कि पिछली रात का काला साया जैसे फिर से लौट आया होl अब यही सब कुछ, कई दिनों तक चलता रहाl एक ऐसा बलात्कार सहन कर रही थी काँची, जो समाज द्वारा पवित्र बंधन के साथ बांधा गया थाl दुनिया ने मिलकर उसका हाथ किसी पुरुष के हाथ में उसकी हिफाज़त के लिए थमाया था पर जब रक्षक ही भक्षक बन गया तो आखिर काँची जाती भी तो कहाँ…?
कुछ दिनों के बाद काँची को लेने उसके बापू आयेl काँची अपने बापू के साथ अपने मायके लौट आईl घर पहुँचते ही काँची की माँ ने, काँची को गले से लगाया फिर पूछा ‘कैसी हो काँची…?’ काँची कुछ कहती इससे पहले काँची के आँसू निकल आयेl उसे रोता देख माँ ने पूछा ‘तू रो रही है काँची…?’ काँची ने अपनी माँ से कहा ‘तेरी ख़ुशियों के आँसूओं ने आँखें बदल ली है माँ’ इतना सुनते ही उसकी माँ के दिमाग में काँची के बाल विवाह के वक़्त की यादें घूमने लगीl जब काँची ने अपनी माँ से कहा था कि तुम रो रही हो माँ, और जवाब में काँची की माँ ने उससे कहा था ‘ख़ुशी के आँसू है पगली।’ काँची ने अपनी माँ को स्पष्ट कह दिया कि अब वो अपने ससुराल नहीं जाएगीl
काँची अब अपने मायके में ही रहने लगी थीl काँची के ससुराल वालों को काँची के बापू ने सारी बात बताई मगर उन्होंने अपने बेटे का पक्ष लेते हुए काँची की सारी बातों को सिरे से खारिज़ कर दियाl और काँची को भिजवाये जाने का दबाव बनाने लगेl मगर काँची के बापू ने उन्हें साफ़ इनकार कर दिया कि अब वे काँची को नहीं भेजेंगेl लेकिन ससुराल वालों को ये बात नागँवारा गुज़रीl काँची के बापू ने काँची का दाख़िला फिर से स्कूल में करवा दियाl अब काँची रोज़ स्कूल जाने लगीl पढ़ाई में भी होशियार थीl इसलिए शहर जाने का इरादा कियाl बापू ने भी उसे शहर जाने की इजाज़त दे दीl
काँची ने शहर के कॉलेज में दाख़िला लियाl कॉलेज की इमारत बहुत पुरानी सी है, देख कर लगता है कि अंग्रेजों के ज़माने में इसे बनाया गया होगाl काँची का आज कॉलेज में पहला दिन हैl कक्षा में काँची कुछ घबराई हुई सी बैठी है और उसके साथी छात्र-छात्राएँ आपस में ज़ोर ज़ोर बातें कर रहे हैंl अचानक से दरवाज़े पर एक आहट होती हैl कक्षा में बैठे हुए सभी छात्र-छात्राएँ एकदम से चुप हो जाते हैंl इतने में सभी की नज़र कक्षा में आये प्राचार्य पर पड़ती हैंl उनके सम्मान में सभी अपनी जगह पर खड़े हो जाते हैl प्राचार्य उन्हें बैठने का इशारा करते हैl फिर कहते हैं कि ‘आज आप सभी का कॉलेज में पहला दिन हैl मैं आप सभी का स्वागत करता हूँl और उम्मीद करता हूँ कि आप सभी अपनी पढाई पूरी करने के बाद अपने जीवन में कामयाबी हासिल करेंl क्योंकि इतिहास में केवल दो तरह के लोगों को जगह मिलती हैंl एक जो बहुत अच्छे होते हैं, दूजे वो जो बहुत ही बुरेl बाकी सभी तो भीड़ बन गुमनामी का सफ़र तय करते हैंl और मैं आप सभी का नाम इतिहास में अच्छे काम के लिए दर्ज़ होता हुआ देखना चाहता हूँl बुराई को याद हमेशा क्रूरता के लिए ही किया जाता है और क्रूरता मानवता का अंत हैl आपको मानव कल्याण के साथ-साथ इस दुनिया में नफ़रत को ख़त्म करते हुए प्रेम का प्रसार करना हैंl अपने शब्दों को यहीं विराम देते हुए प्राचार्य कमरे से बाहर निकल जाते हैंl उनके चले जाने के बाद धीरे धीरे सभी छात्र-छात्राएँ भी कमरे से बाहर निकलने लगते हैंl काँची शहर में किराए पर लिए अपने कमरे पर लौट जाती हैl
दिन गुज़रने लगेl काँची धीरे धीरे शहर की आब ओ हवा में ढलने लगीl रहने का सलीका, कपड़े पहनने का तरीका और जीने का अंदाज़, सब कुछ बदलने लगाl उसी की कक्षा में पढ़ने वाला एक लड़का विष्णु, उसके मन को भाने लगाl कुछ दिनों तक काँची विष्णु को चोर नज़रों से देखती रहीl मगर विष्णु को इस बात की कोई ख़बर नहीं थी कि काँची उसे चाहने लगी हैl एक दिन विष्णु की नज़र काँची पर पड़ी तो विष्णु को काँची की आँखों में अपने लिए प्यार नज़र आयाl अब दोनों नज़रों की भाषा में बातें करने लगेl एक दिन काँची ने आमने-सामने होकर के विष्णु से बात करने का होंसला जुटायाl विष्णु देखने में बहुत ही आकर्षक और अच्छे व्यक्तित्व का धनी थाl शायद यही सबसे बड़ी वजह रही, विष्णु के प्रति काँची के झुकाव कीl ‘हैलो विष्णु’ ऐसा काँची ने कहाl जवाब में विष्णु ने कहा “हाय काँची” ‘विष्णु मैं तुम्हें चाहने लगी हूँl’ काँची ने अपने प्यार का इज़हार कियाl विष्णु एक गहरी साँस भरता हैl फिर कहता है ‘काँची आई लव यू’ इतना सुनकर काँची शरमाते हुए वहाँ से चल देती हैl ‘अरे सुनो तो सही काँची, रूको…’ विष्णु आवाज़ लगाता हैं, मगर काँची नहीं रूकतीl धीरे धीरे अब मुलाकातों के सिलसिले शुरू हो जाते हैंl पहरों तक दोनों एक दूजे की बाहों में सिमटे रहते हैंl और अपने भविष्य के सारे सपनों को हकीक़त बनाने की योजनाओं पर बातें करते रहते हैंl काँची को अब अपनी जिंदगी से फिर एक दफ़े मोहब्बत होने लगी थीl वो अपने अतीत को भुलाकर के वर्तमान में जीने लगी थीl
एक दिन उसके बापू काँची से मिलने शहर आते हैl काँची से पूछते हैं ‘तू यहाँ ख़ुश तो है ना बेटी’ काँची जवाब में अपना सिर हिलाकर के कहती है ‘हाँ, बापू मैं बहुत ख़ुश हूँl’ अगले दिन काँची अपने बापू को विष्णु से मिलवाती हैl और कहती है ‘बापू, ये है मेरा दोस्त विष्णु, बहुत ही अच्छा लड़का हैं और मैं अपनी ज़िंदगी की नयी शुरुआत विष्णु के साथ करना चाहती हूँl’ काँची की बात सुनकर काँची के बापू को गुस्सा आ जाता हैl मगर वो उस वक़्त अपना गुस्सा ज़ाहिर नहीं करतेl काँची से कहते है ‘काँची तुम अपना सामान बाँध लो, हम गाँव चल रहे है’ काँची और विष्णु को कुछ भी समझ नहीं आताl काँची अपने बापू के साथ गाँव को रवाना हो जाती हैl गाँव में अपने घर पहुँचते ही काँची के बापू, काँची की माँ को कहते है कि ‘पूछो अपनी बेटी से कि क्या करने गई थी शहर…?’ इससे पहले कि माँ कुछ समझ पातीl काँची बोल पड़ी ‘माँ मैं शहर में एक लड़के से प्यार करती हूँ उसका नाम विष्णु है, बहुत अच्छा लड़का हैl और वो भी मुझसे बहुत प्यार करता हैl ख़ुश रहूंगी मैं उसके साथl मेरे जीने की वजह बन चुका है अब विष्णुl अब मैं सिर्फ उसी से शादी करना चाहती हूँl’ इतना सुनते ही माँ कहती है ‘बिरादरी में नाक कटवाएगी क्या हमारी…?, अगर तू ऐसा कुछ भी करेगी तो तेरी ख़ुशियों की झोली में मेरी अर्थी के फूल सजे होंगेl इतना सुनते ही काँची माँ के मुँह पर हाथ रख देती है और रोते हुए कहती है ‘माँ मैं ऐसा कोई काम नहीं करूँगीl जिससे बापू और तुम्हारी इज्ज़त पर कोई आँच आयेl’
अब कुछ दिन काँची के, विरह में ही गुज़रने लगेl अब वो हर रोज़ उस रेत के टीले पर जाके पहरों तक आसमान की ओर देखा करतीl ज़ोर ज़ोर से विष्णु का नाम पुकारतीl मगर रेगिस्तान की बालू में कहीं दब कर दफ़न हो जाती थी उसकी आवाज़l
एक दिन काँची के बापू ग्वाड़ी में बैठे थे और उनके पास उनका पड़ौसी भूणा राम आता है, और कहता हैं ‘काँची के बापू, काँची के लिए एक रिश्ता लाया हूँ अगर स्वीकार हो तो बात चलाई जाएl मेरी बहन का बेटा है सरकारी नौकर हैl बाबू है, पंचायत समिति मेंl अच्छा खासा कमाता खाता हैl इतना विश्वास दिला सकता हूँ कि ख़ुश रखेगा तुम्हारी काँची कोl’ मगर एक बात ये भी बता दूँ कि ‘वो विधुर है, किसी बीमारी से उसकी पत्नी मर चुकी हैl एक बच्चा भी है पांच साल काl’ काँची के बापू उसे कहते है ‘मुझे दो दिन का समय चाहिए सोचने के लिएl’ भूणा राम कहता है ‘ठीक है काँची के बापू मैं दो दिन बाद आता हूँl’
‘अरे ओ काँची की माँ, ज़रा इधर आना’ काँची के बापू कहते हैl काँची की माँ आती हैl काँची की माँ के पास आने पर काँची के बापू सारी बात उसकी माँ को समझाते हैंl काँची की माँ कहती है ‘अच्छा रिश्ता है तो हमें देरी नहीं करनी चाहिएl अगर दोबारा छोरी का घर बस जाएगा तो हम अपनी ज़िम्मेदारियों से मुक्त हो जायेगेंl और रोज़-रोज़ के ये समाज के ताने भी बंद हो जायेंगेl’ काँची की माँ और बापू की एक राय बनती है कि अब काँची का हाथ उसी सरकारी मेहमान के हाथों में दे दिया जायेगाl
अगले दिन काँची की माँ, काँची को सारी बात समझाती हैंl काँची भी नम आँखों से माँ की सारी बात सुनते हुए माँ की हाँ में हाँ मिलाती हैl और उनके द्वारा तय किये जा रहे रिश्ते में बंधने के लिए भारी मन से राज़ी हो जाती हैंl काँची की ज़िंदगी में, ज़िंदगी के सिवाय सब कुछ व्यवस्थित करने में लगे थे काँची के माँ-बापूl
शाम को काँची अपने घर के पास डाडू काका की किराणे की दुकान पर जाती हैl काका से पूछती है ‘काका ये एक रूपये का सिक्का डालकर बात किये जाने वाला फ़ोन ठीक है क्या…?’ काका कहते है ‘हाँ बिटिया, फ़ोन कल ही ठीक करके गए हैंl’ काँची फ़ोन में एक रूपये का सिक्का डालकर के विष्णु को उसके घर वाले लेंडलाइन पर फ़ोन लगाती हैंl चार से पांच घंटियाँ जाने के बाद विष्णु ही फ़ोन उठाता हैl विष्णु कहता है ‘हेल्लो’ मगर सामने से कोई आवाज़ नहीं आतीl विष्णु एक बार फिर कहता है ‘हेल्लो’ इस बार फ़ोन से रोने की आवाज़ सी आती हैl विष्णु कहता है ‘काँची, काँची तुम रो क्यों रही हो…? और इतने दिन से तुम्हारा ना कोई ख़त, ना फ़ोन तुम ठीक तो होl काँची रोते हुए कहती है ‘मैंने तुम्हारे साथ मेरी जिंदगी के हसीन लम्हें जिये हैं विष्णु और अब उन्ही लम्हों के साथ मेरी आगे की ज़िंदगी गुज़रने वाली हैं’ विष्णु कहता है ‘काँची स्पष्ट कहो क्या कहना चाहती हो मैं कुछ समझा नहींl विष्णु तुम बहुत अच्छे होl तुम तुम्हारी ज़िंदगी की नयी शुरुआत करो और मुझे भूल जाओ क्योंकि मैं मेरे माँ बापू की मर्ज़ी के बगैर अब तुमसे शादी नहीं कर सकतीl’ विष्णु कहता है ‘काँची उस दरिया के बाहर यहाँ इक समंदर तुम्हारा इंतज़ार कर रहा है, वापिस लौट आओ काँची, लौट आओl’ काँची कहती है ‘अब लौटने की कोई भी गुंजाइश बाकी नहीं बची है विष्णुl’ इतना कहकर काँची रोते हुए फ़ोन काट देती हैl दूसरी तरफ़ से विष्णु ‘हेल्लो काँची, हेल्लो पुकारता रहता हैंl
दो दिन बाद अबूदा राम का पड़ौसी भूणा राम आता है और कहता है ‘तो फिर क्या फैसला किया काँची के बापू…?’ काँची के बापू कहते ‘रिश्ता हमें मंजूर हैl’
अच्छा सा मुर्हुत निकाल कर के काँची का दूसरा ब्याह तय किया जाता हैl काँची संभलने का ढोंग करती है मगर दिल से वो पूरी तरह बिखर चुकी हैl उसे अब ऐसा लगने लगा है कि सारी ज़िंदगी अब एक ज़िंदा लाश की तरह ही गुज़ारनी हैंl काँची का दूसरा ब्याह कर उसे ससुराल भेज दिया जाता हैंl वहाँ उसके साथ सभी अच्छा व्यवहार करते हैंl वो भी अपने आप को उनके मुताबिख़ ढालने की कोशिश करती हैl अपने दूसरे पति के बच्चे को पूरा प्यार देती है ताकि उसे माँ की कोई कमी महसूस ना होl ज़िंदगी की गाड़ी जो पटरी से उतर चुकी थी, उसे फिर से पटरी पर लाने की पूरी कोशिश कर रही थी काँचीl दिन भर घर के काम में ख़ुद को व्यस्त रखने लगी थी ताकि ज़ख्मों को हरा होने का वक़्त ना मिलेl
एक दिन सुबह काँची के दूसरे पति अपनी नौकरी पर जाने के लिए मोटर साईकल पर सवार होकर निकलेl कुछ दूर पहुंचे ही थे कि उन्हें रास्ते में एक आदमी मिलाl उस आदमी ने काँची के दूसरे पति से मोटर साईकल पर साथ बिठाकर कुछ दूरी पर छोड़े जाने की मदद माँगीl काँची के दूसरे पति ने भी उसे अपनी मोटर साईकल पर अपने पीछे बिठा लियाl वो दूसरा आदमी बागड़ राम थाl फिर बागड़ राम काँची के दूसरे पति को मनगढ़त तरीके से अपनी और काँची की कहानी को कल्पनाओं में ढाल करके के सुनाने लगाl कहानी ख़त्म होने आई थी कि बागड़ राम कांची के दूसरे पति को कहता है ‘काँची का पहला पति मैं ही हूँ’ काँची का दूसरा पति बागड़ राम की शक्ल देख पाता इससे पहले ही बागड़ राम, काँची के दूसरे पति पर धारदार हथियार से हमला कर देता हैl हमले में काँची के दूसरे पति की मौत हो जाती हैl ह*त्या करने के बाद बागड़ राम फरार हो जाता हैl काँची के दूसरे पति की ह*त्या की ख़बर पूरे गाँव में आग की तरह फ़ैल जाती हैl और काँची के दूसरे ससुराल में मातम पसर जाता हैl इस मर्तबा फिर से काँची पर दुखों का एक पहाड़ सा टूट पडाl उसके सामने जीने की कोई भी वजह नहीं बची थीl ग्वाड़ी में सभी महिलाएं ज़ोर-ज़ोर से विलाप कर रही थी, काँची भी उन महिलाओं के बीच बैठी पछाड़े मार-मार कर रो रही थीl काँची की चूड़ियों को उसकी सास और अन्य महिलाओं द्वारा तोड़ा जा रहा हैl चूड़ियाँ टूटते ही काँची के हाथ से खून बहने लगता हैl मगर काँची को इन चूड़ियों की वजह से बने ज़ख्मों के दर्द से ज़्यादा, आत्मा पर लगी चोट प्रताड़ित कर रही थीl एकाएक काँची वहाँ से उठकर चल देती हैंl चलते-चलते बार-बार आसमान की तरफ़ बेबस निगाहों से देखती हैl मगर आसमान को उसकी बेबसी पर ज़रा सा भी तरस नहीं आताl और वो मूसलाधार बरसने लगता हैl काँची भीगते हुए ढाणी में बने टांके (पानी से भरे हौद) के पास पहुँचती हैl वहाँ पहुँचकर के काँची फिर एक दफ़े आसमान की तरफ़ देखने की कोशिश करती हैl मगर बारिश की बड़ी-बड़ी बूँदें बरसाता आसमान काँची को आँखें नहीं मिलाने देताl काँची आँखें बंद करती है और टाँके में कूद कर अपनी ईहलीला समाप्त कर लेती हैl
इति समाप्त !!!
~ मनीष शर्मा
नोट – मेरे द्वारा लिखित ये कहानी पूर्णतया काल्पनिक है। आत्म*ह*त्या घोर अपराध है। मैं इसका विरोध करता हूँ।