‘‘माँ‘‘
मदर्स डे 11.05.2013 केअवसरपरमेरीएकमौलिककृतिकविता (‘‘माँ‘‘) सरल शब्दों में आपके समक्ष रख रहा हूँ, उम्मीद करता हूँ आपको पसन्द आयेगी।
‘‘माँ‘‘ जिन्दगी है मेरी
‘‘माँ‘‘ दुनिया है मेरी
मुझे झूला झुलाती हैं माँ
खुद आँखों में लिए नींद
रात बिताती हैं माँ
खुद गीले में सोती है
मुझे सूखे पे सुलाती हैं माँ
खुद भूखी रह जाती हैं
मेरा पेट भर जाती हैं माँ
तेरे सीने से लिपट के
मैं जन्नत पा जाता हूँ माँ
तेरी गोद में सिर रख के
मैं हर गम भूल जाता हूँ माँ
खुद लाख दर्द सहती हैं
मेरे दर्द से सिहर उठती हैं माँ
दूर एक पल भी तू होती हैं
तो मैं सहम जाता हूँ माँ
एक लम्हा एक पल भी
मैं तुझसे दूर ना रह पाऊँ माँ
मेरी हर खुशी में हैं
मेरे हर गम में शामिल है माँ
ममता की मूरत हैं
वात्सल्य की गागर हैं माँ
ओजस्वी सोणा रूप हैं
तेज धूप में छाँव हैं माँ
निर्मल जल की फुहार हैं
आसमान की नीली चादर हैं माँ
मेरी हर राह में हैं
मेरी हर डगर में हैं माँ
मेरी हर जीत में हैं
मेरी हार का सबक हैं माँ
मेरी सांसो की डोर हैं
मेरे जीवन का आधार हैं माँ
तुझे देख के मैं जिंदा हूँ
तुझे खोने से डरता हूँ माँ
मेरी आँखो का तारा हैं
मेरे जीने का सहारा हैं माँ
तुझसे बिछड़ के कभी
मैं जी ना पाऊंगा माँ
‘‘माँ‘‘ जिन्दगी है मेरी
‘माँ‘‘ दुनिया है मेरी।
सिर्फ़ एक किस्सा होती, तो मैं तुम्हें ज़रूर सुनाता
पूरी दास्ताँ है “माँ”, सदियाँ कम पड़ेंगी बखान करने में
~ मनीष शर्मा