पुष्पा-२ पर मेरा नज़रिया
मैंने 8 दिसंबर की शाम फ़िल्म पुष्पा2 देखी। फ़िल्म पुष्पा और पुष्पा2, बाहुबली इस बात की पुष्टि करती है कि कॉन्टेंट अगर अच्छा हो, तो उसकी लंबाई कोई मायने नहीं रखती। कुछ दशकों पहले फ़िल्मों और गीतों की लंबाई ज़्यादा हुआ करती थी। लंबाई ज़्यादा इसलिये भी कि देखने वाले और सुनने वालों के पास धैर्य और फ़ुरसत हुआ करती थी। अब सबको, सब कुछ इतना जल्दी देखना है कि हम अपने वक़्त में से 60 सेकंड या 90 सेकंड से ज़्यादा नहीं देना चाहते। गीत भी पहले एक मुखड़ा और दो अंतरों का हुआ करता था। यहाँ तक कि मेरा लिखा पहला गीत तेरे बिन धड़कन भी तीन अंतरों का गीत है। वहाँ से एक अंतरे वाले गीतों पर आ गए हैं। जैसे तोड़ दे जंज़ीरें जिसमें भी शुरुआत के 30 सेकंड की पहली धुन और हुक लाइन ये तय करती है कि गाने को आगे सुना जाना है या नहीं। उम्मीद कि अब ये जल्दी जल्दी देखने और सुनने वालों को पुष्पा जैसा अच्छा कॉन्टेंट मिलेगा तो शायद थोड़ा धैर्य रखकर समय देंगे या फिर बदलते वक़्त का तक़ाज़ा है शार्ट विडियोज़ और छोटी लंबाई के गीत। समझना असमंजस में डालता है।
फ़िल्में समाज का आईना होता है। मैं हर एक चीज़ को दो नज़रिये से देखता हूँ। फ़िल्म पुष्पा 2 में पुष्पाराज की पत्नी श्रीवल्ली, पुष्पा से कहती है कि सीएम से मिलने जा रहे हो तो सीएम साहब के साथ एक फोटो खिंचवाना। लेकिन एक चंदन तस्कर के साथ सीएम साहब फोटो खिंचवाने से इनकार कर देते हैं, इस इनकार का परिणाम सीएम साहब को बड़ा भारी पड़ता है, पुष्पा पैसों की ताक़त के बूते सीएम साहब को ही बदल देता है। अगर सीएम साहब फ़ोटो खिंचवाते तो संकट में आ जाते, भले ही सीएम साहब की पार्टी को इस चंदन तस्कर की तरफ़ से चंदा क्यों ना आता हो।
फ़िल्म में पुष्पा के साथ सीएम ने फ़ोटो नहीं खिंचवाया, तो पुष्पा को अपमान महसूस हुआ। उस अपमान का परिणाम, पुष्पा ने सीएम ही बदल दिया, महाभारत में द्रोपदी ने दुर्योधन को अंधे का बेटा अंधा कह अपमानित किया, फलस्वरूप युद्ध के घावों का रिसाव द्रोपदी के कटु शब्द भी रहे। धननंद द्वारा भरी सभा में चाणक्य का अपमान किया गया। चाणक्य ने उस अपमान का बदला राजगद्दी पर चंद्रगुप्त मौर्य को बैठाकर लिया। कभी किसी का अपमान ना करें। ना बड़े का, ना बच्चे का। क्यों कि जो आज बच्चा है वो कल को बड़ा होगा और बड़ा होकर बड़ा आदमी भी बन सकता है और बड़े आदमी अगर अहंकारी हुए तो किसी को नहीं छोड़ेंगें। इसका मतलब ये नहीं कि सभी से डरा जाए या ग़लत का विरोध ना किया जाए, बस जो भी किया जाए उसमें लहज़ा समझाईश और प्रेम का हो।
फ़िल्म के एक दृश्य में पुलिस वाले पुष्पा के साथियों को पकड़कर थाने में ले आते हैं। थोड़ी देर में पुष्पा उनमें से एक को छुड़ाने थाने में आता है क्योंकि उस साथी की शादी के फेरे रुके होते हैं, उन पुलिस वालों को पुष्पा उन पर किये अहसान गिनाने लगता है। इस पर मैं ठाकुर जी को कहता हूँ कि “ठाकुर जी किसी भी व्यक्ति से लिये गए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष अहसान की एक निश्चित क़ीमत होती है और वो क़ीमत अहसान करने वाले पर निर्भर करती है कि वो क्या वसूलेगा। इसलिए जहाँ तक संभव हो आत्मनिर्भर बनो और मुफ़्तख़ोर तो कभी मत बनना।”
हम सब वर्तमान में जीते हैं। मैं जब छोटा था तो मुझे मेरे पिता जी के ज़माने की फ़िल्में और गीत पुराने (मेरे ज़माने से पहले का ज़माना) लगा करते थे। मेरी उम्र और समझ बढ़ने के साथ साथ मुझे उन फ़िल्मों और उनके गीतों के मायने समझ आने लगे। संगीत कभी पुराना नहीं होता। बल्कि जब वाहियात गीत बनते है तब वही पुराना संगीत ज़्यादा सुना जाता है और ज़्यादा अच्छे लगने लगते हैं। मेरे बेटे ठाकुर जी को मेरे ज़माने 90’s के गीत पुराने लगते हैं। वो आज के ज़माने के संगीत को पसंद करते हैं। इसी तरह आज के ज़माने की फ़िल्में भी। अब मैं उन्हें आज बन रही फ़िल्मों से भी दूर रखना चाहता हूँ, पर जैसा कि हम सभी वर्तमान में जीते हैं तो लाज़मी है कि उन पर भी आज की फ़िल्म का प्रभाव पड़ेगा। पुष्पा2 में एक दृश्य है जिसमें पुष्पा चंदन की लकड़ियों को दूर देश में बेचना चाहता है लेकिन पुलिस अफ़सर भंवर सिंह रास्ते का काँटा बनता है। लेकिन पुष्पा उन लकड़ियों को पुलिस से छिपते छिपाते मुक़ाम तक पहुँचा ही देता है। पुष्पा इस काम को अंजाम देने के बाद पुलिस अफ़सर भँवर सिंह से सांकेतिक भाषा में बात करता है। वो सांकेतिक भाषा अश्लील होती है, जिसे सब समझ सकते हैं। सब मतलब बड़े से लेकर 15 वर्ष से ऊपर के बच्चे तक। ठाकुर जी अभी 15 वर्ष से नीचे हैं। इसी क्रम में एक दृश्य में भँवर सिंह पुष्पा से सॉरी कहलवाना चाहता है। पुष्पा अपने साथियों के दबाव में सॉरी बोल भी देता है लेकिन उसे पछतावा होता है कि पुष्पा झुकेगा नहीं और वो वापिस जाकर भँवर सिंह को अनाप शनाप बोल देता है। वहाँ कुछ नाचने वाली महिलायें भी खड़ी होती हैं। उन्हें पुष्पा कहता है कि “आप यहॉं से चले जाओ मेरे मुँह से गाली निकल सकती है। गाली आपको नहीं बोल रहा लेकिन मैं नहीं चाहता कि गाली आप सुनें, इसलिए आप यहाँ से चले जाओ।” सोचने वाली बात ये है कि इस दुनिया में शायद ही कोई ऐसा इंसान हो जिसे गालियाँ नहीं आती हो। क्यों कि बुरी चीज़ों को बड़ी आसानी से सीखा जा सकता है। मेहनत तो मुश्किल चीजों को सीखने के लिए करनी पड़ती हैं। शो ख़त्म होने पर ठाकुर जी ने मुझसे कहा “पापा जी पुष्पा ने गाली नहीं बोली।” मैंने कहा आपको कौन सी गालियाँ आती है जो आप कह रहे हो कि पुष्पा ने गाली नहीं बोली। ठाकुर जी “मुझे पता है।” अब इन बच्चों को टी.वी. और मोबाईल का सरल एक्सेस वो सब भी सिखा जाता है जिससे तमाम माँ बाप अपने बच्चों को बचाना चाहते हैं।
अब आते है फ़िल्म की समीक्षा पर, फ़िल्म लाज़वाब है। साउथ वालों का सिनेमा इतना फास्ट होता है कि आदमी का दिमाग़ कुछ और सोच नहीं पाता। एक के बाद एक सीन बहुत तेजी से पर्दे पर आते है। फ़िल्म में अल्लू अर्जुन नहीं, पुष्पा ही दिखता है। सभी क़िरदार और फ़िल्म की कहानी लाज़वाब है। गीत मुझे पसंद नहीं आये। फ़िल्म एक बार देखनी चाहिए ताकि ये पता चल सके कि ज़्यादा लंबाई वाली फ़िल्मों की कहानी में अगर कसावट हो तो फ़िल्म कभी उबाऊ नहीं लगती। फ़िल्म के सभी क़िरदार कहानी में डूबे हैं। पुष्पा इस बार वाइल्ड फ़ायर है और वो झुक नहीं रहा, उसे अपना सरनेम भी वापिस मिल गया है जो पिछली फिल्म में उससे छीन लिया गया था पुष्पाराज मुलेटी।
~ मनीष शर्मा